पिछले 4 चुनावों का ट्रेंड, हार जाती है सत्ताधारी पार्टी की आधी से ज्यादा कैबिनेट
कांग्रेस इस बार राजस्थान में सरकार रिपीट करने के दावे कर रही है। आपने भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से लेकर कई कांग्रेस नेताओं के मुंह से बार-बार ये सुना होगा कि हम 25 साल से चले आ रहे सियासी ट्रेंड को तोड़ेंगे। जनता से जुड़े फैसलों के दम पर कांग्रेस फिर से सत्ता में आएगी।
लेकिन सच तो यही है कि राजस्थान में सत्ताधारी दल फिर से सत्ता में नहीं आता। इस ट्रेंड को समझने के लिए भास्कर ने एक्सपर्ट्स की मदद ली और पिछले 4 विधानसभा चुनावों के नतीजों का बारीकी से एनालिसिस किया।
सामने आया कि कांग्रेस के ये दावे तभी हकीकत में बदल पाएंगे जब वह अपने ज्यादातर विधायकों के टिकट काटकर नए लोगों को मैदान में उतारे।
क्योंकि जो भी पार्टी सत्ता में रही, उसने अपने पुराने चेहरों के भरोसे ही चुनाव जीतने की कोशिश की। लेकिन यह कारगर नहीं हुई। दिग्गज मंत्री भी अपनी सीट नहीं बचा पाए।
तो क्या अगला चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस को मौजूदा मंत्री-विधायकों के टिकट काटने का फॉर्मूला अपनाना पड़ेगा? क्या सत्ता विरोधी लहर में जीतने का यही मंत्र है? क्यों राजस्थान के वोटर्स हर बार सत्ता पलट कर रख देते हैं?
राजस्थान की सियासत के 3 बड़े फैक्ट्स पर गौर करना जरूरी है…
- पिछले 20 साल में राजस्थान में हुए चार चुनावों में कोई भी पार्टी लगातार दूसरी बार सरकार नहीं बना पाई।
- सत्ताधारी पार्टी के विधायक दुबारा चुनाव मैदान में उतरते हैं तो उनमें से ज्यादातर को हार झेलनी पड़ती है।
- सबसे ज्यादा गुस्सा मंत्रियों पर निकलता है, पिछली चार सरकारों में मंत्री रहे ज्यादातर नेता अगले चुनाव में हार गए।
2018 के चुनाव में भाजपा के 16 मंत्री हारे, 94 विधायकों को फिर से टिकट दिया, इनमें से 54 हारे
भाजपा ने 2018 के चुनाव में 163 विधायकों में से 94 को फिर से टिकट देकर मैदान में उतारा। इनमें से सिर्फ 40 ही जीते। यानी 54 विधायकों को हार का मुहं देखना पड़ा।
तत्कालीन वसुंधरा सरकार के मंत्री रहे 16 नेता चुनाव हार गए। हार का सामना करने वालों में युनूस खान, प्रभुलाल सैनी, राजपालसिंह शेखावत, धनसिंह रावत, अरुण चतुर्वेदी, अजयसिंह किलक, श्रीचंद कृपलानी, डॉ. रामप्रताप, कमसा मेघवाल, बंशीधर बाजिया, ओटाराम देवासी, कृष्णेंद्र कौर दीपा, सुशील कटारा, अमराराम और बाबूलाल वर्मा शामिल थे।
इस चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के अलावा मंत्रियों में सिर्फ गुलाबचंद कटारिया, राजेंद्र राठौड़, किरण माहेश्वरी, कालीचरण सराफ, पुष्पेंद्र सिंह, अनिता भदेल और वासुदेव देवनानी को ही जीत मिल सकी। यानी वे ही जीते जो अपने क्षेत्र में सक्रिय रहे और जिनके खिलाफ जनता में नाराजगी नहीं थी।
2013 के चुनाव से पहले कांग्रेस सत्ता में थी, वह 21 सीटों पर सिमट गई
कांग्रेस ने 2013 में सभी 200 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन वह सिर्फ 21 सीटों पर ही सिमट गई। जिन 105 उम्मीदवारों को कांग्रेस ने 2008 में चुनाव लड़ाया था, उनको फिर से 2013 में टिकट दिए जिनमें से 91 हार गए।
सिर्फ 14 उम्मीदवार ही चुनाव जीत सके। रिपीट किए गए प्रत्याशियों में 75 विधायक भी शामिल थे, इनमें से सिर्फ 5 ही जीते। बाकी 70 विधायकों को हार का सामना करना पड़ा।
कांग्रेस ने इस चुनाव में 31 ऐसे लोगों को टिकट दिया था जो पिछले चुनाव में हार गए थे। इन 31 में से 22 उम्मीदवार 2013 में भी हार गए। 31 में से सिर्फ 9 ही जीते।
एक फैक्ट यह भी : सत्ता विरोधी लहर में नए चेहरे भी नहीं जीतते
2013 में कांग्रेस ने 95 नए चेहरों को चुनाव में टिकट दिया। इनमें से 88 हार गए, सिर्फ 7 जीते। नए चेहरों की इस कदर बुरी हार होना इस बात का संकेत है कि जब सत्ता विरोधी लहर चलती है तो नए चेहरे भी स्वीकार्य नहीं होते। इस चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार का मुद्दा हावी होने के साथ भाजपा के पक्ष में नरेंद्र मोदी की लहर काम कर रही थी।
गहलोत मंत्रिमंडल में मंत्री रहे 31 नेता भी 2013 के चुनाव में हार गए
2008 से 2013 के बीच गहलोत सरकार में मंत्री रहे ज्यादातर नेताओं को फिर से टिकट दिया लेकिन इनमें से ज्यादातर मंत्री चुनाव नहीं जीत पाए। इस चुनाव में सिर्फ तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, मंत्री महेंद्रजीत मालवीय, गोलमा देवी, बृजेंद्र ओला और राजकुमार शर्मा ही जीते। इनके अलावा पूरा मंत्रिमंडल हार गया।
गहलोत मंत्रिमंडल का हिस्सा रहे 31 नेता सीट नहीं बचा पाए। इनमें दुर्रु मियां, भरतसिंह, बीना काक, शांति धारीवाल, भंवरलाल मेघवाल, ब्रजकिशोर शर्मा, परसादीलाल, डॉ. जितेंद्र सिंह, राजेंद्र पारीक, हेमाराम और हरजीराम बुरड़क जैसे दिग्गज नेता शामिल थे। असल में सत्ता के खिलाफ एंटी इंकम्बेंसी विधायकों के साथ ज्यादा खतरनाक मंत्रियों के लिए साबित हुई।
2008 के चुनाव : भाजपा के 25 में से 13 मंत्रियों को देखनी पड़ी हार
2003 के चुनाव में 120 सीटों के साथ सत्ता में आई भाजपा ने 2008 में 193 सीटों पर चुनाव लड़ा। सत्ता विरोधी लहर और विधायकों की एंटीइन्कमबेंसी के कारण वह 78 सीटों पर ही सिमट कर सत्ता से बाहर हो गई।
भाजपा ने 68 चेहरे रिपीट किए। इनमें से जनता ने सिर्फ 28 को चुनकर विधानसभा पहुंचाया। बाकी 40 को हरा दिया। हारने वालों में ज्यादातर मंत्री और विधायक शामिल थे। भाजपा ने 125 उम्मीदवार नए उतारे। इनमें से 48 ने जीत हासिल की। यानी मतदाता ज्यादातर पुराने चेहरों से ऊब चुके थे।
एक्सपर्ट्स कहते हैं: बार-बार सरकार बदलने से पड़ता है विकास पर असर
विधानसभा में रिसर्च और रेफरेंस विंग के मुखिया रहे डॉ. कैलाश चंद्र सैनी कहते हैं- सत्ता में रहने के बाद सत्तापक्ष के विधायकों को एंटी इन्कमबेंसी के कारण जनता का विरोध झेलना पड़ता है।
उनके फिर से चुनाव जीतने की संभावना कम हो जाती है। 5 साल सरकार में रहने के बाद जो विधायक या मंत्री जनता की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते उनको हार मिलती है।
राजस्थान में हर 5 साल बाद भाजपा और कांग्रेस में सत्ता परिवर्तन ऐसी परंपरा है जो लोकतंत्र के खुलेपन को तो दर्शाती है लेकिन यह प्रदेश के लिए ठीक नहीं है।
इससे राज्य का विकास रुकता है। एक सरकार जो योजनाएं लागू करती है, दूसरी सरकार उनको या तो बंद कर देती है या बदल देती है।
वरिष्ठ पत्रकार मिलाप चंद डंडिया कहते हैं- ज्यादातर नेता जब विधायक चुन लिए जाते हैं तो उसके बाद जनता को भूल जाते हैं। चुनाव के दौरान जनता मालिक होती है, बाद में खुद मालिक बन जाते हैं।
इसलिए अगले चुनाव में जनता गुस्सा उतारती है और इनको हरा देती है। ऐसे भी कई नेताओं के उदाहरण हैं जो चुनाव जीतकर जनता के सुख-दुख में हमेशा साथ रहते हैं वे लगातार जीतते हैं।
राजनीतिक विश्लेषक लक्ष्मण बोलिया का मानना है कि सरकार के खिलाफ एंटी-इंकम्बेंसी इसलिए हो जाती है क्योंकि राजस्थान में विकास की जरूरतें बहुत ज्यादा है। चुनाव में राजनीतिक दलों के लोकलुभावन वादे देखकर लोगों को लगता है कि उनकी जरूरतें पूरी होंगी।
पार्टियां वादा करती हैं लेकिन सरकार में आने के बाद वादे पूरे नहीं करती। पांच साल पूरे होते-होते जनता में असंतोष पनप जाता है। यह असंतोष सताधारी दल के खिलाफ चुनाव में भारी पड़ता है।