नरेंद्र मोदी का अगला ड्रीम प्रोजेक्ट न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक को फिर से जिंदा करना है| भाजपा और नरेन्द्र मोदी अपनी सरकार के कार्यकाल में ये विधेयक पास करवाना चाहेगी. इसके लिए सांसदों को तैयारी करने को कहा गया है. संसद की बहस के समय विपक्ष को जवाब देना एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है.
पूर्व सीजेआई रमना ने हाल ही में जजों की नियुक्ति के मामले में विविधता को सुनिश्चित करने के लिए किसी मैकेनिज़म के न होने की बात कही थी. हालांकि, उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान इस पर कोई काम नहीं किया.
भारत में खुद जजों द्वारा जजों को नियुक्त करने की विवादित व्यवस्था “कोलिजियम सिस्टम” पर यूं तो सवाल उठते रहे हैं. लेकिन इस बार सवाल कहीं और से नहीं, खुद एक जस्टिस की ओर से आया है. सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड चीफ जस्टिस एनवी रमना ने हाल ही में एक कॉन्फ्रेंस में कहा कि ‘जजों की नियुक्ति में विविधता लाने की कोई व्यवस्था नहीं है.’ वे आगे कहते हैं कि ‘अभी जजों की नियुक्ति की जो व्यवस्था है, उससे दिक्कतें हो रही हैं जिसे हर कोई जानता है.’
पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, रमना सहित अन्य जजों ने भी पूर्व में उठाए थे सवाल
जस्टिस रमना आठ साल तक सुप्रीम कोर्ट में जज रहे. 16 महीने तक चीफ जस्टिस के तौर पर वे कोलिजियम के हेड भी रहे. रिटायरमेंट के बाद वे बेशक डायवर्सिटी की बात कर रहे हैं, लेकिन जस्टिस रमना के कोलिजियम के चीफ रहने के दौरान (सुप्रीम कोर्ट कोलिजियम यानी चीफ जस्टिस और 4 वरिष्ठ जजों का समूह) की गई जजों की नियुक्तियों को देखें तो उनमें डायवर्सिटी यानी विविधता का गंभीर अभाव नजर आता है.
रमना के सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस रहने के दौरान सुप्रीम कोर्ट में 11 जज नियुक्त हुए. चूंकि सुप्रीम कोर्ट में ज्यादातर जज हाई कोर्ट से आते हैं, इसलिए वे कह सकते हैं कि यहां उनके हाथ बंधे हुए थे. लेकिन हाई कोर्ट में वे एससी-एसटी-ओबीसी के जज ला सकते थे. उनके कार्यकाल में हाई कोर्ट के लिए 242 जजों की नियुक्ति की सिफारिश की गई. इनमें से 240 जज नियुक्त हुए.
जब मैंने इन 240 जजों की सामाजिक पृष्ठभूमि की जानकारी ली और इसके लिए हर हाई कोर्ट में अपने संपर्कों से बातचीत की तो पता चला कि इनमें से 190 यानी 80 प्रतिशत जज हिंदू सवर्ण जातियों से थे. स्पष्ट है कि रिटायरमेंट के बाद जस्टिस रमना ने जो कहा, उसका तालमेल उनके नेतृत्व में कोलिजियम द्वारा की गई नियुक्तियों के साथ नहीं था.
कोलिजियम के पांच में से चार जजों की सहमति से ही जजों की नियुक्ति का प्रावधान.
एक अन्य बेहद अशोभनीय विवाद हाल ही में हुआ, जब चीफ जस्टिस यूयू ललित ने पांच जजों को सुप्रीम कोर्ट में लाने की प्रक्रिया शुरू की. एक जज पर तो सबकी सहमति बन गई, लेकिन बाकी चार नामों पर सहमति बनाने के लिए बैठक की जरूरत पड़ी. तय किए हुए दिन कोलिजियम के सदस्य जजों की बैठक नहीं हो पाई, क्योंकि एक सदस्य जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ उस दिन रात नौ बजे तक कोर्ट रूम में मुकदमों की सुनवाई करते रहे. जस्टिस ललित ने कोलिजियम के सदस्यों को पत्र लिखकर उनकी सहमति मांगी तो दो जजों ने सहमति देने से इनकार कर दिया. इस बीच कानून मंत्रालय ने जस्टिस ललित को लिख दिया कि वे अगले चीफ जस्टिस की नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू करें. इसके बाद कोलिजियम की कोई बैठक संभव नहीं थी. इस तरह सुप्रीम कोर्ट में चार जजों की नियुक्ति नहीं हो पाई.
इस घटना से पहली बार ये वास्तविक रूप में सामने आया कि कोलिजियम के दो जज अगर अड़ जाएं तो सुप्रीम कोर्ट में कोई जज आ ही नहीं पाएगा, क्योंकि इस सिस्टम में कोलिजियम के पांच में से चार जजों की सहमति से ही जजों की नियुक्ति का प्रावधान है.
हमें नहीं मालूम कि चार जजों की नियुक्ति के मामले में कोलिजियम जजों के बीच आपसी तालमेल क्यों नहीं बन पाया. अगर कोई विवाद था तो वह किन बिंदुओं पर था?
कोलिजियम सिस्टम में दो मुख्य समस्याएं हैं जिसके कारण उसमें सुधार की मांग तेज हो रही है
1. कोलिजियम सिस्टम के जरिए न्यायपालिका ने राष्ट्रपति के अधिकार अपने हाथ में ले लिए हैं. ऐसा संविधान के संबंधित प्रावधानों में संशोधन के बिना किया गया है. खासकर अनुच्छेद 124 को, जिसमें व्यवस्था दी गई है कि सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट के जजों के परामर्श यानी सलाह से करेंगे. ये प्रावधान जजों की सलाह को बाध्यकारी नहीं बनाता है. परामर्श या सलाह को मानना बाध्य कैसे हो सकता है?
2. कोलिजियम सिस्टम के संकट और उसकी खामियां उजागर हो गई हैं. जजों की नियुक्ति की व्यवस्था में बदलाव समय की मांग है. नियुक्ति की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिसमें न्यायपालिका और सरकार तथा संसद तीनों की भूमिका हो. व्यवस्था में चेक और बैलेंस हो यानी असंतुलन और मनमानी रोकने की क्षमता सिस्टम में होनी चाहिए.
नरेंद्र मोदी ने 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद जिस क्षेत्र में सबसे पहले सुधार करना चाहा था, वह क्षेत्र न्यायिक नियुक्तियों का ही था. इसके लिए संसद ने नेशनल ज्यूडिशियल एप्वांटमेंट कमीशन एक्ट 2014 और संबंधित 99वां संविधान संशोधन पारित किया गया. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इनको निरस्त कर दिया.
नरेंद्र मोदी सरकार को अपनी इस महत्वकांक्षी परियोजना पर फिर से काम शुरू करना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने जिन बिंदुओं पर इस कानून को संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ माना, उसमें संशोधन करके नेशनल ज्यूडिशियल एप्वांटमेंट कमीशन विधेयक नए सिरे से संसद में पेश करना चाहिए. नियुक्ति आयोग में न्यायपालिका, सरकार, विपक्ष, और एससी/एसटी/ओबीसी आयोग के प्रतिनिधि होने चाहिए.