बीजेपी के कई वरिष्ठ नेताओं को राज्य में फिर से सत्ता में वापसी में मदद करने के लिए तैनात किया गया है..
त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में बीजेपी स्टार स्टडेड कैंपेन चला रही है. बीजेपी के कई वरिष्ठ राष्ट्रीय नेताओं को इस पूर्वोत्तर राज्य में फिर से सत्ता में वापसी में मदद करने के लिए तैनात किया गया है.
लेकिन बीजेपी के शीर्ष नेता लेफ्ट, कांग्रेस या तृणमूल कांग्रेस पर उतना हमला नहीं बोल रहे हैं, जितना कि वे प्रदेश की राजनीति में एक नए खिलाड़ी और पार्टी को निशाना बना रहे हैं. वह पार्टी है तिपराहा स्वदेशी प्रगतिशील क्षेत्रीय गठबंधन या टिपरा मोथा जिसका नेतृत्व त्रिपुरा शाही परिवार के प्रमुख माणिक्य देब बर्मा कर रहे हैं.
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि टिपरा और वाम मोर्चा (लेफ्ट फ्रंट) का गुप्त समझौता हो चुका है. वहीं असम के सीएम और नॉर्थ-ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस के संयोजक हिमंत बिस्वा सरमा ने कहा कि टिपरा मोथा के लिए एक वोट देने का मतलब है कि आप एक वोट बर्बाद कर रहे हैं.
आखिर ऐसा क्या है कि बीजेपी द्वारा टिपरा पर ऐसे और इतने हमले किए जा रहे हैं? ऐसा क्या है कि चार साल पुराने इस संगठन पर बीजेपी इस चुनाव के दौरान नजर बनाए हुए रखी है?
यह मुख्य रूप से इस बारे में है कि पार्टी क्या प्रतिनिधित्व करती है. यह केवल त्रिपुरा के संबंध में ही नहीं बल्कि पूरे पूर्वोत्तर के संदर्भ में है.
इसके तीन पहलू हैं-
त्रिपुरा में स्वदेशी राजनीति पर मंथन-
बाहर से आए प्रवासियों (माइग्रेंट्स) के खिलाफ क्षेत्र के मूल निवासियों के अधिकारों की रक्षा की मांग ने पूर्वोत्तर राज्यों में राजनीति को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है|
हालांकि, त्रिपुरा एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां प्रवासी (विभाजन के बाद आए बंगाली भाषी शरणार्थी) स्पष्ट बहुसंख्यक हैं.
आजादी के समय त्रिपुरा में गैर-आदिवासी आबादी लगभग 45 प्रतिशत थी जो बढ़कर अब 70 फीसदी के करीब पहुंच गई है.
1960 और 1970 के दशक में जब कांग्रेस त्रिपुरा में प्रमुख पार्टी थी, तब स्वदेशी लोग अपनी राजनीतिक मांगों पर जोर देने के लिए तेजी से कम्युनिस्ट पार्टियों की ओर देखने लगे थे.
उनकी मांगों को उचित जगह देने के लिए 1979 में त्रिपुरा जनजातीय स्वायत्त जिला परिषद (त्रिपुरा ट्राइबल ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल TTADC) का गठन किया गया था. यह प्रदेश में लगभग दो तिहाई क्षेत्र (मूल रूप से ऐसे क्षेत्र जहां आदिवासी बहुसंख्यक हैं) में फैली हुई है.
1977 में लेफ्ट (वामपंथ) की जीत काफी हद तक आदिवासी जनजातियों के समर्थन के कारण थी, लेकिन वामपंथी सरकार ने भी इन मुद्दों को पूरी तरह से संबोधित नहीं किया. 1989 के चुनावों में TUJS (त्रिपुरा उपजाति जुबा समिति) ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया और कम्युनिस्टों को हराया.
आदिवासी क्षेत्रों में 1990 और 2000 के दशक की शुरुआत में मुख्य रूप से नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा और ऑल त्रिपुरा टाइगर फोर्स के नेतृत्व में सशस्त्र विद्रोह तेज हो गया था. वहीं दूसरी तरफ यूनाइटेड बंगाली लिबरेशन टाइगर फ्रंट का भी गठन किया गया था.
हालांकि अगले एक दशक में सशस्त्र विद्रोह को दबा दिया गया था, लेकिन त्रिपुरा की स्वदेशी आबादी के बीच इस तरह की समस्याएं बनी रहीं.
इस दौरान, 2001 में TUS (त्रिपुरा उपजाति समिति) को भंग कर दिया गया और आदिवासी हितों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले दो नए संगठनों का गठन किया गया. ये दो संगठन थे- द इंडीजेनस नेशनलिस्ट पार्टी ऑफ ट्विप्रा और इंडीजेनस पीपल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा. IPFT (इंडीजेनस पीपल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा) का 2001 में INPT (द इंडीजेनस नेशनलिस्ट पार्टी ऑफ ट्विप्रा) में विलय हो गया था, लेकिन वे 2009 में दोनों फिर से विभाजित हो गए.
वहीं 1993 में लेफ्ट (वामपंथ) फिर से सत्ता पर काबिज हुई. इसने सरकार के अपने प्रयासों के साथ-साथ जनजातीय दलों के बीच दल-बदल के माध्यम से जनजातीय क्षेत्रों में विस्तार करना जारी रखा.
2013 में वामपंथियों ने त्रिपुरा की एसटी सीटों में से एक को छोड़कर सभी पर अपना परचम लहराया था. जबकि INPT और IPFT दोनों का सफाया हो गया था.
हालांकि, वामपंथ के प्रभुत्व ने विपक्ष की जगह में काफी खालीपन छोड़ दिया था, जिस पर 2018 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने कब्जा जमा लिया था. पार्टी ने आदिवासी क्षेत्रों में नौ एसटी सीटों पर आईपीएफटी का समर्थन किया था, जबकि गैर-एसटी सीटों के अलावा बाकी की बची 11 एसटी सीटों पर भी अपने उम्मीदवार उतारे थे.
पीएम मोदी, अमित शाह और हिमंत बिस्वा सरमा की तिकड़ी के नेतृत्व में पूर्वोत्तर में पार्टी के विशाल संसाधनों और वर्चस्व ने भी त्रिपुरा के आदिवासी क्षेत्रों में इसके विस्तार में मदद की है.
हालांकि, बीजेपी को जो सफलता मिली वह अल्पकालिक साबित हुई. पार्टी बंगाली और आदिवासी मतदाताओं के बीच संतुलन बनाने में विफल रही. सीएए ने आदिवासी समूहों के विरोध को आकर्षित करके मतभेद की खाई को चौड़ा किया.
TIPRA ने इंडीजेनस वोटर्स के बीच खुद को कैसे स्थापित किया
त्रिपुरा के स्वदेशी मतदाताओं के भीतर हो रहे मंथन (IPFT और INPT के पतन और बीजेपी के प्रति बढ़ते विरोध के बीच) से टिपरा मोथा मुख्य तौर पर लाभार्थी रहा है. इन दोनों संगठनों के समर्थन आधार का एक बड़ा हिस्सा हासिल करने में टिपरा मोथा कामयाब रहा है.
टिपरा (TIPRA) के अध्यक्ष बिजॉय कुमार ह्रांगखाल एक अनुभवी नेता हैं, जो पहले त्रिपुरा उपजाति जुबा समिति और आईएनपीटी के साथ काम कर चुके हैं.
टिपरा पार्टी ने 2021 में INPT के साथ गठबंधन में लड़ते हुए त्रिपुरा ट्राइबल ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल (TTADC) के चुनाव में काफी अच्छा प्रदर्शन किया था. टिपरा पार्टी ने 23 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 16 जीतकर 47 प्रतिशत वोट हासिल किए थे, जबकि इसके सहयोगी INPT को 9.3 प्रतिशत वोट और दो सीटें मिलीं थीं.
बीजेपी ने 12 सीटों के लिए चुनाव लड़ा और उनमें से नौ पर जीत हासिल की थी, लेकिन उसकी सहयोगी IPFT का सफाया हो गया था. IPFT ने जिन 16 सीटों में चुनाव लड़ा था उनमें से एक पर भी उसे जीत हासिल नहीं हुई थी. इसके अलावा वामपंथियों का भी सफाया हो गया था.
TIPRA द्वारा TTADC पर नियंत्रण जमाने के परिणामस्वरूप प्रद्योत माणिक्य देब बर्मा अब प्रदेश के सबसे बड़े आदिवासी नेता के तौर पर स्थापित हो गए हैं. इसकी वजह से अन्य आदिवासी पार्टियों पर टिपरा के तहत एकजुट होने का दबाव बना, जिससे इस नए संगठन की तरफ बीजेपी का ध्यान आकर्षित हुआ.
2023 के विधानसभा चुनावों में संभावित गठबंधन को लेकर बीजेपी को टिपरा के साथ चर्चा शुरू करने के लिए मजबूर होना पड़ा. लेकिन देब बर्मा को “संवैधानिक समाधान” और “ग्रेटर टिपरालैंड” के निर्माण पर बीजेपी ने लिखित प्रतिबद्धता देने पर अनिच्छा जाहिर की जिसकी वजह से यह वार्ता टूट गई.
इसके अलावा, बीजेपी ने TIPRA को आदिवासी सीटों पर जगह नहीं देना चाहती थी. वहीं IPFT को और भी कम सीटों के साथ एक जूनियर पार्टनर के तौर पर बनाए रखते हुए BJP ने अपने स्वयं के आधार को विस्तार देने को प्राथमिकता दी.