02/04/2023
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कामदेव ने बनाई बसंत ऋतु, शिव ने उन्हें भस्म किया

राजा रघु ने राक्षसी को मारने के लिए बच्चों को दिए रंग तो मनी पहली होली

आज (8 मार्च) होली खेली जाएगी। ये रंगों का त्योहार है और ये पर्व अकेले सिर्फ प्रहलाद-होलिका से नहीं जुड़ा है। इसकी तीन अलग-अलग कहानियां हैं। जो होलिका-प्रहलाद से भी पुरानी हैं। ये कहानियां पौराणिक हैं और इन सबमें जीवन प्रबंधन के कुछ संकेत हैं।

आयुर्वेद कहता है सर्दी खत्म होने के बाद और गर्मी शुरू होने के बीच का जो समय है, उसमें काफी लोग मौसमी बीमारियों से परेशान रहते हैं। होली से जुड़ी पौराणिक कहानियों में जिन राक्षस-राक्षसियों के जिक्र हैं, वो इन्हीं बीमारियों के प्रतीक हैं। वायरस के खिलाफ हम तभी लड़ सकते हैं जब हमारे शरीर की इम्युनिटी मजबूत हो।

मौसम परिवर्तन के समय एक्टिव रहना और नए मौसम के लिए खुद को तैयार रखना जरूरी है। होली उसी परिवर्तन के लिए खुद को तैयार करने का त्योहार है। जब आप इन पौराणिक कहानियों को पढ़ेंगे तो समझ पाएंगे कि ये कहानियां सिर्फ कोरी कथाएं नहीं हैं, इनमें कहीं ना कहीं सेहत और जीवन के लिए संकेत भी हैं।

ग्रंथों के अनुसार सतयुग के बाद त्रेतायुग में श्रीराम ने होली खेली, द्वापर युग में श्रीकृष्ण ने राधा और गोपियों के साथ होली खेली थी। अधिकतर लोग यही जानते हैं कि होली होलिका और प्रहलाद की वजह से मनाई जाती है, लेकिन इस उत्सव से जुड़ी कुछ और मान्यताएं भी हैं। एक मान्यता कामदेव से जुड़ी है तो दूसरी ढोंढा नाम की राक्षसी से। ये मान्यताएं विष्णु पुराण, शिव पुराण और भविष्य पुराण में बताई गई हैं। भारत में फसल पकने पर भी उत्सव मनाने की परंपरा है।

जानिए शास्त्रों की वो कहानियां, जिनकी वजह से होली मनाने की परंपरा चली आ रही है…

श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताई थी ढोंढा राक्षसी की कहानी 

भविष्य पुराण के मुताबिक, एक दिन युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा, ‘हर साल फाल्गुन पूर्णिमा पर सभी लोग त्योहार क्यों मनाते हैं? होलिका क्यों जलाते हैं? इस उत्सव की शुरुआत किस वजह से हुई है?’

श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया, ‘होली की शुरुआत सतयुग से हुई है। उस समय रघु नाम के एक राजा और ढोंढा नाम की राक्षसी थी। ढोंढा छोटे बच्चों को मारकर खा जाती थी। वह बहुत ताकतवर थी, क्योंकि उसे शिव जी से वरदान मिला हुआ था।

ढोंढा राक्षसी ने तप करके शिव जी को प्रसन्न किया और वरदान मांगा कि मुझे कोई देवता या इंसान मार न सके, मैं किसी अस्त्र-शस्त्र से न मरूं। मेरी मृत्यु ठंड, गर्मी और वर्षा ऋतु में न हो।

शिव जी ने राक्षसी को मनचाहा वरदान दे दिया, लेकिन भगवान ने उससे कहा कि तुम्हें खेलते हुए और उत्सव मनाते हुए बच्चों से सावधान रहना होगा। इनकी वजह से तुम्हारी मृत्यु होगी।

ढोंढा शिव जी के वरदान से बहुत ताकतवर हो गई। देवी-देवता तक उसे मार नहीं पा रहे थे। वह बच्चों को तो देखते ही खा जाती थी। राजा रघु राक्षसी को मारना चाहते थे। उन्होंने अपने पुरोहित से इसका उपाय पूछा।

पुरोहित ने बताया कि शिव जी के वरदान से वह ताकतवर जरूर है, लेकिन उत्सव मनाते हुए बच्चों की मदद से हम उसे मार सकते हैं। फाल्गुन पूर्णिमा पर न गर्मी होती है, न ठंड और न ही वर्षा ऋतु होती है। इसी तिथि पर बच्चों की मदद से ढोंढा राक्षसी को मारेंगे।

राजा रघु ने फाल्गुन पूर्णिमा पर अपने राज्य के बच्चों को इकट्ठा किया, खेलने के लिए उन्हें रंग-गुलाल दिया। सभी बच्चे एक साथ आए तो खुशियां मनाने लगे, त्योहार मनाने लगे। राजा के सेवकों ने सभी बच्चों को सूखी घास और लकड़ी के टुकड़े दिए। बच्चों ने घास और लकड़ी का ढेर लगा दिया। रक्षा मंत्रों का जप करते हुए ढेर में आग लगा दी गई। सभी बच्चे आग के चारों ओर परिक्रमा करते हुए शोर मचा रहे थे। बच्चों की आवाज की वजह से ढोंढा राक्षसी की ताकत खत्म हो गई और फिर सभी ने मिलकर उसे मार दिया।

ढोंढा राक्षसी मर गई तो राजा रघु के राज्य के लोगों ने रंग-गुलाल उड़ाकर खुशियां मनाई थीं। तभी से लोग फाल्गुन पूर्णिमा पर लकड़ी-घास जलाते हैं, इसकी परिक्रमा करते हैं और रंग-गुलाल खेलते हैं।’

होलिका अपने भतीजे प्रहलाद को मारने के लिए उसे लेकर आग में बैठ गई 

होली पर विष्णु पुराण की होलिका और प्रहलाद से जुड़ी कथा सबसे ज्यादा पढ़ी-सुनी जाती है। ये सतयुग की कथा है। उस समय राक्षसों का राजा हिरण्यकश्यप था, उसका विवाह कयाधु से हुआ।

हिरण्यकश्यप ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके अमर होना चाहता था, इसलिए वह तपस्या करने जंगल में गया तो देवताओं ने उसके राज्य पर हमला कर दिया।

देवर्षि नारद कयाधु को बचाकर अपने आश्रम में ले आए। कुछ समय बाद कयाधु ने एक पुत्र को जन्म दिया। बच्चे का नाम प्रहलाद रखा गया।

नारद मुनि के साथ रहकर प्रहलाद विष्णु भक्त बन गया। दूसरी ओर, हिरण्यकश्यप की तपस्या से ब्रह्मा जी प्रसन्न होकर प्रकट हुए। हिरण्यकश्यप ने ब्रह्मा जी से अमर होने का वरदान मांगा, लेकिन ब्रह्मा जी ने ये वरदान देने से मना कर दिया।

अमर होने का वरदान न मिलने से हिरण्यकश्यप सोच में पड़ गया, उसने सोचा कि मुझे ऐसा वरदान मांगना चाहिए, जिससे मेरी मौत कभी न हो। बहुत सोच-विचार करके उसने वरदान मांगा कि मुझे कोई अस्त्र-शस्त्र से न मार सके। मेरी मौत सुबह-शाम में न हो। मैं घर में या बाहर न मरूं। कोई भी मुझे जमीन या आसमान में मार न सके।

ब्रह्मा जी ने असुर राज को ये वरदान दे दिया। वरदान मिलने के बाद असुर राज ने देवताओं के स्वर्ग पर कब्जा कर लिया। सभी देवता एक साथ मिलकर भी हिरण्यकश्यप को हरा नहीं पाए। असुर राज खुद को भगवान समझने लगा और विष्णु जी को शत्रु, लेकिन उसका बेटा प्रहलाद विष्णु जी का भक्त बन गया था।

जब ये बात हिरण्यकश्यप को मालूम हुई तो उसने प्रहलाद को मारने के लिए तरह-तरह की यातनाएं दीं, लेकिन हर बार विष्णु कृपा से प्रहलाद बच गया। असुर राज की एक बहन थी होलिका। उसे वरदान मिला था कि वह आग में नहीं जलेगी।

फाल्गुन पूर्णिमा पर होलिका ने प्रहलाद को मारने के लिए आग जलाई और अपने भतीजे को गोदी में लेकर आग में बैठ गई। प्रहलाद आग में बैठे-बैठे भी विष्णु जी का ध्यान कर रहा था। विष्णु जी की कृपा से प्रहलाद तो बच गया, लेकिन होलिका जल गई।

कामदेव ने प्रकट किया था ऋतुराज बसंत को 

शिवपुराण की कथा है। फाल्गुन पूर्णिमा पर बसंत उत्सव भी मनाया जाता है। इस दिन से बसंत शुरू होता है और इसे ऋतुराज कहते हैं। इस ऋतु को कामदेव ने शिव जी की तपस्या तोड़ने के लिए प्रकट किया था।

ये उस समय की घटना है, जब शिव जी का विवाह प्रजापति दक्ष की पुत्री देवी सती से हुआ था। दक्ष शिव जी को पसंद नहीं करता था। एक दिन दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन किया, उसने सभी देवी-देवताओं और ऋषियों को बुलाया, लेकिन शिव-सती को नहीं बुलाया।

ये बात सती को मालूम हुई तो वे यज्ञ में जाने लगीं। शिव जी ने देवी सती को समझाया कि हमें बिना बुलाए नहीं जाना चाहिए। सती ने तर्क दिया कि पिता के यहां जाने के लिए किसी निमंत्रण की जरूरत नहीं है। शिव जी के मना करने के बाद भी सती दक्ष के यज्ञ में पहुंच गईं।

सती को देखकर दक्ष ने शिव जी के लिए अपमानजनक बातें कहना शुरू कर दीं। सती अपने पति का अपमान सहन नहीं कर सकीं और हवन कुंड में कूद गईं। सती के जाने के बाद शिव जी तपस्या में बैठ गए। उस समय तारकासुर असुरों का राजा था, वह जानता था कि शिव जी तपस्या में बैठे हैं, उनका तप तोड़ना देवताओं के लिए भी असंभव है। सती के बाद शिव जी दूसरा विवाह भी नहीं करेंगे।

तारकासुर ने तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया। उसने ब्रह्मा जी से वरदान लिया कि उसकी मौत शिव जी के पुत्र के हाथों हो।

वरदान मिलने के बाद तारकासुर का आतंक बढ़ गया, उसने देवताओं को हरा कर स्वर्ग जीत लिया।

भगवान विष्णु भी वरदान की वजह से तारकासुर का वध नहीं कर सकते थे। सभी देवताओं ने योजना बनाई कि किसी तरह शिव जी का ध्यान तोड़कर उन्हें दूसरा विवाह करने के लिए तैयार किया जाए, तभी तारकासुर का अंत होगा।

शिव जी का ध्यान तोड़ने के लिए देवताओं ने कामदेव से मदद मांगी। कामदेव ने फाल्गुन पूर्णिमा पर शिव जी का ध्यान तोड़ने के लिए बंसत ऋतु को प्रकट किया। इस मौसम में न ज्यादा ठंड लगती है, न ही गर्मी होती है, ठंडी हवा चलती है, मौसम सुहाना रहता है, सरसों के खेत में पीले फूल दिखने लगते हैं, आम के पेड़ों पर बौर आने लगते हैं। बसंत ऋतुओं में श्रेष्ठ है, इसीलिए गीता में श्रीकृष्ण ने बसंत ऋतु को खुद का ही स्वरूप बताया है।

बसंत ऋतु के सुहाने मौसम और कामदेव के बाणों की वजह से शिव जी का ध्यान टूट गया। शिव जी का ध्यान टूटते ही उन्होंने अपनी तीसरी आंख खोल दी, जिससे कामदेव वहीं भस्म हो गए।

देवताओं ने शिव जी को शांत करके तारकासुर और ब्रह्मा जी के वरदान के बारे में बताया तो भगवान दूसरा विवाह करने को तैयार हो गए।

उस समय देवी सती ने हिमालय राज के यहां पार्वती के रूप में जन्म लिया था। पार्वती शिव जी से विवाह करने के लिए तप कर रही थीं। देवी की तपस्या से शिव जी प्रसन्न हुए और उनसे विवाह करने का वरदान दिया। इसके बाद शिव-पार्वती का विवाह हुआ। जिससे कार्तिकेय का जन्म हुआ और कार्तिकेय ने तारकासुर को मार दिया।

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