जीव जन्तुओं की सुरक्षा एवं मानव कल्याण के लिए सैकड़ों वर्षों से चली आ रही यह प्राचीन लोक सांस्कृतिक परम्परा रात्रि जागरण की सौंध को यथावत रखते हुए मंचीय कला के रूप में सामने आने लगी है।
जसनाथी सम्प्रदाय के नर्तक अग्नि के दहकते अंगारों से गुजरते हैं, अठखेलियां करने लगते हैं। दहकते अंगारों पर ऐसे चलते हैं जैसे फूलों पर चल रहे हों। खिलौनों की तरह अंगारों को हाथों में ले लेते हैं। मुंह में लौ और अंगारा भर कर उसकी फुहार छोड़ते हैं। जसनाथी पंथ का अग्नि नृत्य अपनी पुरातन छाप को सुरक्षित रखते हुए कठिन साधना और आध्यात्मिक लोक लुभावन की बेमिसाल कड़ी है। जसनाथी लोक संस्कृति में जागरण (अग्नि नृत्य) का अब धार्मिक आयोजनों के साथ भी जुड़ाव होने लगा है। भारी भरकम साफा, बदन पर श्वेत परिधान पहने जसनाथी गायबियों (कीर्तनकारों व वादकों) के दल की विशाल नगाड़ों की थाप पर मंगलाचरण व स्तवन की परंपरा की अपनी अलग ही पहचान है।
अग्नि नृत्य से एक-डेढ घण्टे पूर्व (धूणें) स्थल पर बड़े-बड़े लकड़े करीने से जमाए जाते हैं और मन्त्रोचारण के साथ हवन विधि घी आपूरित कर अग्नि प्रज्वलित की जाती है। हवन के साथ-साथ से ज्वाला उठने के साथ ही दर्शक धूणें के चारों ओर अपना स्थान बना लेते हैं। सामने दूसरे सिरे पर गायबी ‘गायक’ और कीर्तनकार जसनाथजी की प्रतिमा व उनके ध्वज के समीप ऊंचे तख्तों पर चन्द्राकार बैठ जाते हैं। लकड़ी के धूणें और नर्तन सीमा में किसी अन्य को आने की अनुमति नहीं रहती है। इस दौरान धधकती आग पर नृत्य करने के साथ अंगीरे मूंह में भी लेते है। पूरी रात तक चलने वाले इस आयोजन में रात्रि के प्रथम प्रहर से अन्तिम प्रहर तक सिरलोकों (सबदों) याने जसनाथजी की वाणी की ऐसी रमझल लगती हैं कि हजारों की संख्या में एकत्रित ग्रामीण लोग पूरी रात अलग-अलग रागों में गाई जाने वाली वाणी से भक्तिसागर में अवगाहन करते हैं और झूमते हैं।

पांचलासिद्धा सहित 12 धाम और 84 सिद्ध बाडिय़ां है जहां अग्रि नृत्य हर वर्ष होते है। रात्रि जागरण के चार प्रमुख अंगो में हवन, ज्योति-आरती, गायबा (गायन-वादन) तथा अग्नि नृत्य है। ये जागरण आश्विन, माघ और चैत्र शुक्ला सप्तमी की विशेष तिथियों पर होते है। औंकार राग पहले तीन प्रहर तक तीन ‘सबद’ गान के बाद श्रीदेव जसनाथजी की जोत (ज्योति) की जाती है। जोत को ही श्रीदेव का प्रतीक मानकर आरती को धूणं की चारों दिशाओं में घूमाया जाता है और अखण्ड धार से घी होमा जाता है। ‘नाचणिये’ तथा ‘गायबी’ पुरजोर आरती गाते हैं। इस विधि के उपरान्त चौथे ‘सबद’ का गान प्रारम्भ होता है और ज्योंही राग में परिवर्तन आता है, जिसे राग फुरना कहते हैं-फतै-फतै का उद्घोष करते हुए नाचणिय नृत्य के लिए खड़े होते हैं और तेजी से नगाड़ों और निशान को प्रणाम करते हुए तीसरे सबद के बाद और होम जाप के तथा आरती के उपरान्त चौथा सबद मलार राग पर ‘सतगुरु सिंवरो मोवण्या, जिण ओ संसार उपायो’ सबद गान के साथ एक-एक नर्तक खड़े हो धूणे के चारों ओर पहले चार चक्कर लगाते हैं फिर विभिन्न प्रकार के हाव भाव के साथ नगारे की ताल पर पैर उठने लगते हैं, नगाड़े पर जोर की तीन थापी पर छलांग लगाते हैं और तीन थापी पर अग्नि पर बैठते हैं।